टाटा झारखंड की खाता है और आंख भी दिखाता है, नहीं चलेगा - शिबु
जमशेदपुर: राज्य के मुख्यमंत्री शिबु सोरेन टाटा कंपनी पर खूब बरसे। यहां एक जनसभा के दौरान उन्होंने कहा कि टाटा कंपनी झारखंड के संसाधनों के बूते ही फल-फूल रही है, लेकिन यहां के आदिवासियों से वह घृणा करती है। यह सब अब नहीं चलेगा।
सिंहभूम के जगन्नाथपुर प्रमंडल और दो नये प्रखंड हाटगम्हहिरया और बोडाम के उदघाटन के बाद यहां के सोरेन गोपाल मैदान में सोहराय मिलन (आदिवासी पर्व) सभा को संबोधित करते हुए शिबु ने कहा कि टाटा कंपनी ने आदिवासियों की जमीन ले ली, लेकिन पीने का पानी तक उपलब्ध नहीं करा रही है। वह झारखंड के पानी, बिजली, लोहा से अपने घर भर कर झारखंडियों को ही आंखें दिखाती है। शिबु ने एमओयू साइन करने वाले उद्यमी घरानों को भी नहीं बख्शा। उन्होंने कहा कि उनकी सरकार यहां मौजूद और आनेवाले उद्यमी घरानों के इस रवैये पर चौकसी रखेगी। यह सब अब नहीं चलेगा।
टाटा पर सरकार के हमले की सच्चाई
झारखण्ड में उद्योगों पर लगातार हमले हो रहे हैं लेकिन इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब १०० वर्ष पुरानी टाटा स्टील जिससे भारत के प्रधानमंत्री मानमोहन सिंह औद्योगिक विकास का नमूना मानते है उसपर राज्य के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने यह कहते हुए सीधे तौर पर हमला बोल दिया है कि टाटा स्टील को झारखण्ड से नफरत है, कम्पनी का मकसद सिर्फ पैसा कमाना है तथा उससे यहां के गरीबों की परवाह नहीं है। यहां एक बात तो स्पष्ट है कि कुछ दिनों पहले तक टाटा का गुण गाने वाले शिबू सोरेन अपनी खुनस निकाल रहे है क्योंकि वे नैनो परियोजना को झारखण्ड में लाना चाहते थे ताकि मध्यम वर्ग उनसे खुश रहे जिससे अगले चुनाव में उनको फायदा मिल सकता है। इसके बावजूद जिस मानवता की बात उन्होंने उठायी है वह निश्चित तौर पर चिंतंनीय है। दूसरी बात यह है कि राज्य में औद्योगिकरण का इतिहास टाटा स्टील से ही प्रारंभ होती है उसके बावजूद क्यों टाटा स्टील को टोंटोपोसी में ग्रीनफिल्ड परियोजना के लिए २४,५०० एकड जमीन तथा सिंहभूम में परियोजना विस्तार हेतु ६००० एकड जमीन नहीं मिल पा रही हैं।
यह तथ्य है कि टाटा स्टील का गरीबी उन्मूलन में खास भूमिका नहीं हैं। १०० वर्ष के बाद भी टाटा की धरती जमशेदपुर में गरीबी खत्म होने के बजाये लगातार बढ रही हैं। शहर में रह रहे आदिवासी, दलित एवं गरीबों को की स्थिति बहुत दयनीय है। ये लोग विस्थापन की मार झेलने के बाद झुग्गीवासी बन चुके हैं। रिक्शा चलाना, कचडा चुनना और मजदूरी करना ही उनके जीविका का प्रमुख साधन बन चुका है। टाटा ने इन लोगों से वादा किया था कि नये लीज एग्रीमेंट में अनुसूचित क्षेत्र की जमीन जहाँ ८५ (सरकारी ऑंकडों के अनुसार) तथा वर्तमान में ११५ झुग्गी बस्ती है उसे लीज से बाहर कर दिया जायेगा। २० अगस्त २००५ को टाटा का नया लीज एग्रीमेंट बना जो अगले ३० वर्षों तक कायम रहेगा। लीज के बाद अखबरों में खबर छपी कि अनुसूचित क्षेत्रों की भूमि को लीज से बाहर रखा गया है। झुग्गीवासी खुशियां मनाने लगे, मिठाईयां बांटी गई तथा लोग नाचने-गाने लगे। लेकिन कुछ ही दिन बाद जब उन्हें अपना मकान खाली करने की सूचना दी गई तो ऐसा लगा मानो उनके ऊपर आसमान गिर पडा है।
उन्होंने 'संयुक्त बस्ती समिति' नामक संगठन के माध्यम से 'सूचना का अधिकार' के तहत जमशेदपुर के विकास आयुक्त से लीज के संबंध में सूचना मांगी। प्राप्त सूचना के अनुसार टाटा को ४३९१.८६.२२ हेक्टेयर भूमि दी गई है, जिसमें अनुसूचित क्षेत्र की भूमि भी शामिल है। टाटा को यह भूमि २ रूपये, २८ रूपये, २०० रूपये एवं ४०० रूपये प्रति एकड की दर से दी गई है, जिस पर टाटा अगले ३० वर्शों तक राज करेगा। वरिश्ठ पत्रकार फैसाल अनुराग के अनुसार छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम १९०४ में ही बन कर तैयार था लेकिन टाटा को जमीन देना था इसलिए इस अधिनियम को उस समय लागू नहीं किया गया। १९०७ में टाटा कम्पनी की स्थापना हुई, जिसमें आदिवासियों की जमीन भी ली गई। उसके बाद १९०८ में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम को लागू किया गया। वे कहते है, ''टाटा कम्पनी एवं सरकार दोनों ने मिलकर आदिवासियों को ठगा है''।
टाटा प्रमुख रतन टाटा कहते हैं कि उनकी कम्पनी किसी के लाश पर प्रगति करने के लिए नहीं बनी है। लेकिन उनका अमानवीय चेहरा २ जनवरी २००६ को पहली बार उडीसा के कलिंगानगर में सामने आया था, जहाँ १४ आदिवासी पुलिस गोली के शिकार हुए जब वे अपनी जमीन, जंगल और जीविका के संसाधनों की रक्षा हेतु टाटा समूह एवं सरकार से लड रहे थे। इसी कडी में विस्थापन विरोधी आदिवासी कार्यकर्ता अमीन बानारा को १ मई २००८ को गोली मार दी थी। हस्यास्पद बात यह है कि टाटा अभी भी इस परियोजना को लागू करने की फिराक में है।
दूसरी ओर सरकार टाटा को टैक्स में प्रतिवर्ष भारी छूट देती है। टाटा द्वारा नियमों का उल्लंघन करने पर झारखण्ड सरकार ने २००३ में टाटा को ६० करोड रूपये सेल टैक्स भरने को कहा था लेकिन टाटा टैक्स भरने के बजाये झारखण्ड उच्च न्यायालय में सरकार के खिलाफ मुदकमा दायर कर दिया। जब कोर्ट ने आयकर आयुक्त को इस संबंध में निर्णय लेने का निर्देश दिया तो टाटा अपना पांव खिसकते देख पुनः सर्वोच्च न्यायालय का रूख किया। अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने टाटा को टैक्स में ६० करोड रूपये की छूट दे दी। वर्तमान में टाटा पानी का टैक्स भी नहीं दे रही है। टाटा के इस रवैया से स्पश्ट है कि टाटा को झारखण्ड के विकास से मतलब नहीं है उसे सिर्फ झाखण्ड के संसाधनों को बेचकर मुनाफा कमाने से मतलब है।
टाटा स्टील स्वयं को झारखंडियों खासकर विस्थपितों की हितैषी बताती है। टाटा का दावा है कि वह अपने वार्शिक आय का ६६ प्रतिशत राशि सामाजिक सरोकार कार्यक्रम के तहत प्रभावित क्षेत्रों के विकास में खर्च करती है। लेकिन सच्चाई यह है कि उनके कार्यक्रम का सारा खर्च उनके कर्मचारियों को मिलता है और जिनको मिलना चाहिए उन्हें नहीं मिलता है। टाटा यह इसलिए करती है ताकि उनके कार्मचारी हमेशा साथ में खडा रहे। आदिवासी एवं मूलवासी जिन्होंने टाटा के कारण अपनी जमीन, जंगल, जीविका के संसाधन, संस्कृति, पहचान खो दी है, टाटा के कल्याणकारी योजनाओं का कभी भी स्वाद नहीं चखा है। ऐसी स्थिति में टाटा स्टील को मानवता पक्ष पर पुर्नविचार करना चाहिए।
No comments:
Post a Comment